Ankaha Rishta | इंसान जीवन भर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते करते उम्र के उस पड़ाव पर पंहुचता है जब उसके पास समय तो होता है लेकिन साथ बैठने वाला साथी नहीं होता और यह उम्र है बुढ़पा. इस उम्र अगर साथ देने वाला साथी छूट जाएं तो अकेले जीवन गुजरना मुश्किल होने लगता है एक अकेलेपन उसके आसपास हमेशा कायम रहता है भले ही परिवार में बेटा बहु और पोता पोती का व्यवहार अच्छा ही हो. हिंदी महल आज ऐसे ही एक कहानी को लेकर आया है जिसमें एक ऐसे इंसान की है जो उम्र के पड़ाव में अकेला है लेकिन उसके जीवन में आता है एक ऐसा रिश्ता जो चुप होने के बाद उनको अकेला होने नहीं दिया – अनकहा रिश्ता.
सुरेंद्र कुमार की जब पत्नी का देहांत हो गया तो उनको अपने पुत्र रवि के साथ शहर आना पड़ा क्योंकि पत्नी के जाने के बाद वे अकेले हो गए थे और अब बेटा ही था जिनके साथ वे रह सकते थे क्योंकि इस उम्र में अकेले रहना आसान नहीं था कोई न कोई पास में होना चाहिए यही कारण था कि वे अपने बेटे के साथ आ गए जिनसे की उनकी इस उम्र में सही देखभाल हो सकती थी. रवि उनको अपने साथ पूना ले आया. घर आकर सुरेंद्रजी को उनका कमरा और बालकनी देखाकर रवि बोला – पापा आप कुछ समय यहां बालकनी में सुकून के साथ बैठ सकते हैं, अखबार पढ़ सकते हैं आप का मन लगा रहेगा और कमरे के दरवाजे के बाहर देखो पापा ! मन तो आपको लगाना ही पड़ेगा.
सुरेंद्रजी ने अपने बेटे के घर में अपना मन लगाने की पूरी कोशिश करते लेकिन उम्र के इस पड़ाव में अकेलापन उनको खाए जाता था आसपास कोई बोलने वाला नहीं था, बेटा व बहु अपने काम में लगे रहते कभी कभी पोते के साथ मन बहला लेते किन्तु वह भी अपने स्कूल की पढ़ाई में अक्सर लगा रहता घर में बेटा बहु और पोते का व्यवहार अच्छा होने के बाद भी उनका मन नहीं लग पाता. सुरेन्द्रजी की बालकनी के सामने वाले घर में शायद कोई नहीं रहता क्योंकि वह घर अक्सर बंद ही रहता.
कुछ दिन के बाद उनके सामने वाले घर में कोई रहने आ गया. बालकनी में उनकी उम्र की ही एक सभ्य और संभ्रांत महिला दिखाई दी. सुरेन्द्रजी ने देखा कि उन संभ्रांत महिला अपनी कामवाली को कुछ समझा रही थी, कुछ पौधे लगवाए, कपड़ों को सुखाने के लिए रस्सी को बंधवाई और एक आरामकुर्सी एक छोटी सी मेज लगवा दी इस तरह से वह वीरान सा देखने वाला बालकनी संजीव हो उठी किसी के होने का एहसास कराने लगा. सुरेन्द्रजी और उस सम्भ्रांत महिला का आपस में गर्दन के इशारे से अभिवादन किया. वैसे तो दोनों बालकनी की दूरी अधिक थी इसलिए इशारे से ही बाते हो सकती थी और तेज बोलकर बातें तो शहरों में कहां हो पाती हैं, यहां तो हर कोई अपने आप मे मग्न होता आसपास की कोई किसी की खबर नहीं लेता.
अब सुरेन्द्रजी को अपनी बालकनी अच्छी लगने लगी. वे अब अखबार आराम से बैठकर पढ़ते सामने वाली बालकनी में छाई हुई वीरानी अब वसंत का रूप ले चुकी थी. बालकनी में लगा तुलसी का पौधा उनकी आस्था को बताता तो मनीप्लांट की बेल और छोटे फूलों के पौधे जीवन की संजीवता को दर्शाता. वैसे तो स्त्रियों को प्रकृति से विरासत में मिला है कि वे चाहे जहां घर बसा सकते हैं वसंत ला सकती हैं, वीरानियों को बदल कर बगिया खिला सकती हैं स्त्रियां अपने घर के आसपास एक सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण करती हैं.
सुरेन्द्रजी और उनका रोज आंखों से व गर्दन के इशारे से आपस में अभिवादन होने लगा संवाद कभी नहीं होती फिर भी सुरेन्द्रजी फिर से जीवन को जीने लगे थे. वे उस महिला को बालकनी में बैठी कभी सब्जी को साफ करते देखते, कभी पौधों में पानी को देते हुए देखते, कभी अचार सुखाते तो कभी स्वेटर बुनते देखते भले दोनों का आपस में कोई बातचीत नहीं होता बस एक एहसास होता कि उनके आसपास भी कोई है. उस महिला की एकप्यारी सी पोती भी थी जिसको वह कभी कभी इशारों में ही सुरेन्द्रजी को नमस्ते करवाती. इससे उनको और अपनापन महसूस होता. बस इस तरह से दोनों में एक प्यारा सा “अनकहा रिश्ता” बन गया.
अनकहे रिश्ते बने हुए कई महीने गुजर गए. एक दिन सुरेन्द्रजी ने देखा कि उस महिला ने तुलसी पौधे के आगे न ही उस दिन दिया जलाया और न ही पौधों को पानी दिया. बस आकर आरामकुर्सी पर ऐसे ही बैठ गई. सुरेन्द्रजी को लगा कि शायद तबीयत खराब है उन्होंने इशारों से ही पूछा “क्या हुआ” उस महिला ने भी इशारे से ही जवाब दिया “सब ठीक है”. लेकिन उसके दो चार दिनों में उस महिला का बालकनी में आना कम होता गया और कुछ दिनों के बाद कई दिनों से वो महिला सुरेन्द्रजी को दिखाई नहीं दे रही थी उनको लगा कि शायद कहीं बाहर गई होगी किन्तु जब कई दिन और बीते तो वह दिखाई नहीं दी और उनके द्वारा लगाएं पौधे सूखने लगे, उनकी लगाई मनीप्लांट की बेल सूखने लगी तो वे चिंतित हो गए उनका मन बैचैन हो उठा.
सुरेन्द्रजी को बहुत चिंता हुई उनका मन अब किसी काम में नहीं लगता लेकिन अपने मन की बात किससे कहते और उस महिला के बारे में पूछे तो किससे पूछे. फिर एक दिन वहीं कामवाली बालकनी में दिखाई दी जो पहले दिन उस महिला के साथ आई थी. वह बालकनी आई और सफाई करने लगी. सुरेन्द्रजी से रहा नहीं गया तो उन्होंने इशारे से पूछा “वे कहां हैं” उस कामवाली ने भी इशारों से हाथ ऊपर करके जवाब दिया “वे अब नहीं रहीं ” सुरेन्द्रजी का दिल धक से रह गया. उन्होंने उस अकेली पड़ी आरामकुर्सी की ओर देखा. दिल में एक गहरी पीड़ा भर गई और फिर से एक बार वे अपनेआप को अकेला महसूस करने लगे.
उन का वह प्यारा सा ” अनकहा रिश्ता ” अनकहा ही रह गया.